VASTU DISHA AUR UPDISHA
वास्तुशास्त्र और दिशा, उपदिशा
मनुष्य जब जीवन जीता है, तो उसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की चार सीमाओं से होकर गुजरना पड़ता है।
मानव जीवन में भोजन, वस्त्र और निवास तीन मूलभूत आवश्यकताएँ मानी जाती हैं।
इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर, मानव मस्तिष्क ने प्रगति की, और उसने सभी सुख-सुविधाएँ प्राप्त कर लीं। प्रगति के स्वर्ण अक्षर मानव ने लिखे।
प्राचीन काल में, मनुष्य वानर अवस्था में था और आश्रय के लिए गुफाएँ, चट्टानों के कोने-कोने में शरण ढूँढता था।
सूर्य, हवा और वर्षा जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करते हुए उसने विकास किया और वास्तु यानी घर की खोज की।
हमें यह ज्ञात है कि प्राचीन काल में बांस से घर बनाए जाते थे, लेकिन धीरे-धीरे सीमेंट और कंक्रीट का जंगल फैलता गया।
ज्योतिष और वास्तुशास्त्र को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा जा सकता है क्योंकि दोनों पंचमहाभूत (पांच तत्वों) पर आधारित हैं।
यदि इसका स्पष्ट उदाहरण दिया जाए, तो हम घर में पाले गए कुत्ते और बाहर सड़क पर घूमने वाले कुत्ते की तुलना कर सकते हैं।
सबसे सुखी कौन लगता है? तो उत्तर यह होगा कि खुला घूमने वाला सड़क का कुत्ता अधिक सुखी होता है क्योंकि वह प्रकृति यानी पंचमहाभूतों के करीब होता है और उसे किसी बंधन का अनुभव नहीं होता।
लेकिन घर का पालतू कुत्ता मन ही मन उदास प्रतीत होता है।
वास्तुशास्त्र का महत्व
आजकल वास्तुशास्त्र को अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है। प्रारब्ध, संचित कर्म और भोग निश्चित रूप से व्यक्ति को आगे ले जाते हैं, लेकिन जिस स्थान पर हम 24 घंटे रहते हैं, वहाँ की सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव डाल सकती है।
आजकल बड़े-बड़े बिल्डर भी वास्तुशास्त्र के अनुसार इमारतें बना रहे हैं।
वास्तुशास्त्र कोई नया विषय नहीं है, बल्कि यह प्राचीन काल से ही अस्तित्व में है।
जहाँ विज्ञान होता है, वहाँ अंधविश्वास नहीं होता।
हमें यह ज्ञात है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथ्वी के निर्माता, संचालक और संहारक हैं।
यहाँ तक कि "GOD" शब्द को देखा जाए, तो "Generator, Operator, Demolition" का अर्थ निकलता है, जो एक सुंदर कल्पना को जन्म देता है।
क्या वास्तव में वास्तुशास्त्र में अद्वितीय शक्ति होती है?
इसका उत्तर एक साधारण चुंबक (लोहचुंबक) से दिया जा सकता है। पृथ्वी के अंदर गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण, चुंबक हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में स्थिर रहता है।
इसी आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि वास्तुशास्त्र केवल एक विश्वास नहीं, बल्कि एक विज्ञान है।
प्राचीन भारत के भव्य मंदिर, शिल्पकारी से युक्त गुफाएँ, महल, किले और प्रसिद्ध भवन वास्तुशास्त्र के आधार पर ही बनाए गए हैं।
प्रसिद्ध इमारतें, जैसे कि आगरा का ताजमहल और मिस्र के पिरामिड, आज के समय में मनुष्य के लिए बनाना लगभग असंभव कार्य है।
यही तथ्य वास्तुशास्त्र की अमिट छाप को दर्शाते हैं।
वास्तुशास्त्र का प्राचीन इतिहास
देवताओं के भवन निर्माण का कार्य भी विश्वकर्मा ने किया था।
भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी का निर्माण भी उन्होंने किया था।
ऋग्वेद, स्कंद पुराण, सूर्य पुराण, रामायण और महाभारत में भी वास्तुशास्त्र का उल्लेख मिलता है।
प्राचीन काल में 18 महान वास्तुकार (शिल्पी) हुए थे, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
भृगु, विश्वकर्मा, नग्नजीत, ब्रह्मा, शौनक, अनिरुद्ध, अत्रि, विशालाक्ष, कुमार, गर्ग, शुक्र, वशिष्ठ, नारद, पुरंदर, नंदिष, वासुदेव, बृहस्पति।
महाभारत और रामायण में राजमहल, इंद्रप्रस्थ की वास्तु संरचना हमें वास्तुशास्त्र की झलक दिखाती है।
कई मंदिर, महल और भवनों के निर्माण में वास्तु ज्ञान, तकनीक और शिल्पकारी की झलक मिलती है।
वास्तुशास्त्र और पंचमहाभूत
मानव शरीर पंचमहाभूतों (पाँच तत्वों) – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है।
शरीर की तरह ही, किसी भी भवन की संरचना पंचतत्वों के अनुसार की जाती है।
वास्तुशास्त्र और दिशाएँ
भौगोलिक दृष्टि से चार मुख्य दिशाएँ और चार उप-दिशाएँ होती हैं।
वास्तु नियमों के अनुसार, किसी भवन में प्रकाश और वायु का उचित आगमन आवश्यक होता है।
मुख्य दिशाएँ और उनके स्वामी:
पूर्व दिशा – स्वामी सूर्य और इंद्र
पश्चिम दिशा – स्वामी वरुण
उत्तर दिशा – स्वामी कुबेर
दक्षिण दिशा – स्वामी यम
मध्य भाग – ब्रह्म स्थान
उप-दिशाएँ और उनके प्रभाव:
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) – अग्नि की दिशा (रसोई के लिए उपयुक्त)
नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) – पुतना राक्षसी की दिशा (भारी वस्तुओं के लिए उपयुक्त)
वायव्य (उत्तर-पश्चिम) – वायु देवता की दिशा (खिड़कियों और हवा के आवागमन के लिए उपयुक्त)
ईशान्य (उत्तर-पूर्व) – ईश्वर की दिशा (पूजा स्थल के लिए उत्तम)
दक्षिण दिशा को अशुभ क्यों माना जाता है?
दक्षिण दिशा को मृत्यु के देवता यम की दिशा माना गया है, इसलिए इसे कई मामलों में अशुभ माना जाता है।
हालाँकि, अंक ज्योतिष के अनुसार, जिनकी जन्मतिथि 8 होती है, उनके लिए दक्षिण दिशा शुभ मानी जाती है।
कुछ व्यवसाय, जैसे सौंदर्य प्रसाधन, कोयला, टायर और सोने-चाँदी की दुकानें, दक्षिण दिशा में सफल हो सकती हैं।
ब्रह्म स्थान (भवन का केंद्र)
चारों दिशाओं के मध्य में स्थित भाग को "ब्रह्म स्थान" कहा जाता है, जिसे खाली रखना चाहिए।
यहाँ कोई भारी वस्तु या पानी की टंकी नहीं होनी चाहिए।
निष्कर्ष
वास्तुशास्त्र केवल मान्यता नहीं, बल्कि एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण है, जो पंचमहाभूतों के आधार पर कार्य करता है।
यह भवन निर्माण में संतुलन और ऊर्जा का प्रवाह बनाए रखने में सहायक होता है।
इसीलिए, प्राचीन काल से लेकर आज तक वास्तुशास्त्र का महत्व बना हुआ है।
Vikas P Deshpande
M. E. Civil, Structural
Consultant
Vastu and Feng shui Consultant
0434681647,
deshpandevikas@gmail.com
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